१. हवा में घुल रहा विश्वास
हवा में घुल रहा विश्वास
कोई साथ में है
धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक को छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है
बादलों की ओढ़नी
मन ओढ़ता है
एक घुँघरू
चूड़ियों में बोलता है
नाद अनहद का छिपाए
मोक्ष का विन्यास
कोई साथ में है |
२. दिन कितने आवारा थे
दिन कितने आवारा थे
गली गली और
बस्ती बस्ती
अपने मन
इकतारा थे
माटी की
खुशबू में पलते
एक खुशी से
हर दुख छलते
बाड़ी, चौक,
गली, अमराई
हर पत्थर
गुरुद्वारा थे
हम सूरज
भिनसारा थे
किसने बड़े
ख़्वाब देखे थे
किसने ताज
महल रेखे थे
माँ की गोद,
पिता का साया
घर-घाटी चौबारा थे
हम घर का
उजियारा थे |
3. ...सारे मोल गये
शहरों की मारामारी में
सारे मोल गये
सत्य अहिंसा ,दया ,धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे और वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर थे कम
जगह बनाती
रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गये
सडकें, गाड़ी, महल, अटारी
सभी झूठ में फाँसे
तिकड़म लील गये
सब खुशियाँ
भीतर रहे उदासे
बेगाने दिल की क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गये |
इन कविताओं कि कवित्री पूर्णिमा वर्मन का सच में हिंदी ब्लॉग लेखन में नाम किसी परिचय का मोह ताज नहीं है| उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छंद की कविता और विशेषकर गीत-नवगीत का मान बढ़ाया है| - पवन सोंटी "पूनिया"
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
रविवार, 26 अक्तूबर 2008
चिंता मणि का कटोरा
कहा जाता है कि दुनिया कि रंगत ही निराली होती है। जब कोई वास्तविकता मैं इसे जानता है तो उसे मालूम होता है कि यह सच मुच ही बहुत हट कर होती है। ज्यों ज्यों इसकी गहरे मैं जाने का प्रयास किया जाता है तो यह ओउर गहरी होती जाती है। मैं इसकी गह राइ मापने का पर्यास कर रहा हूँ । इससे बड़ी मुरखता तो कोई नही हो सकती लेकिन जन बुझ कर कर रहा होऊं ताकि कुछ हाथ लग सके । जो जो हाथ लगता जय गा सब से साँझा करता रहूँगा ................
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